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सुनो भाई !! मैं वेदना के तमाम उपहारों के बीच गुमशुदा हो गया हूँ |

भटकन का आदर्श
भटकन का आदर्श
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सुनो भाई ,
तुम्हारे तमाम फोन कॉल्स जो अब मिस हो चुके हैं ,उनके एवज में मैं ये खत लिख रहा हूँ | अभी तक उन तमाम न सुने जा सकने वाले सवालों का सार यही होगा “कि मैं कैसा हूँ “| ‘ठीक हूँ’ भी लिख सकता था पर दो शब्दों से मिलकर बना ये जवाब मुझे बेचारा सा लगता है |गमबाजों से लेकर खुशमिजाज लोग तक इसे यूं ही चेंपते आये है|इसलिए जवाब में मैं एक ब्लॉग कि शक्ल में एक खत लिख रहा हूँ |
कहा जा सकता है कि ज़िंदगी का ये हिस्सा सबसे आराम भरा है |इस दौर ने किसी बात की शिकायत नहीं दी है | ज़िंदगी में भौतिक परेशानियों से इतना बेखबर मैं कभी नहीं रहा हूँ |जितने लोगों का प्यार इस वक्त मिल रहा है ,इस तरह से कभी नहीं मिला है |और तो और |पहली बार मैं पहली बार के जैसा प्यार को पूरी सम्पूर्णता से महसूस कर रहा हूँ | मैं जिसे भीड़ कहता था, वो धीमे -धीमे अपनी होती जा रही है | पर मेरे भीतर एक अजनबी सा आदमी रहता है | यह आदमी तमाम छोटी -छोटी बातों से मिलकर बना है जो एक लय में जीवन से गुजरकर मेरी डायरियों का पन्ना बनती चली गई हैं | इस आदमी को सिर्फ एक अहसास होता जिसे सब ‘टीस’ कहते हैं | इस टीस के होने की कोई मुकम्मल वजह नहीं है लेकिन यह टीस हर दिन के सरकने में शामिल रहती है |इस टीस वाले आदमी ने ही मुझे अग्निधर्मा बनाया था |जब भी मैं कभी अकेला होता हूँ ये मुझे अपनी मौजूदगी का एहसास करा देती है |कभी -कभी मैं चाहता हूँ कि काश कोई ऐसी दवा होती जिससे यह दूर हो सकती या इसके बारे में जान तो सकता |बहुत सोचने पर पाता हूँ कि यह टीस हमारे इर्द-गिर्द कि भौतिकता से जुडी हुई नहीं है |
मुझे अपनी क्रांतिकारिता के पुराने दिन याद आते हैं |मैं डायरी में उस वक्त के पन्ने पढ़ते- पढ़ते बेचैन हो जाता हूँ जब गन्दी सी जींस पहनकर मैं आंदोलन करने कि ठान लिया करता था |मैं सचमुच गाय के खूंटे के पास बैठकर देश की समस्याओं पर रोया हूँ |आनन-फानन में उसी उम्र में दो किताबें भी लिख दी थी जो कम समझ और तमाम भाषाई गलतियों के कारण संभावित पाठकों के भी सामने नहीं आ पायी |उन दिनों छत पर एक कुटिया बनाई थी |उस कुटिया कि जगह अब पक्का कमरा बन गया है |वह कुटिया मेरी राजनीतिक साधना की गवाह थी |ये पक्का कमरा मुझे दिन पर दिन उस वक्त से बेखबर होते जाने की याद दिलाता है |सच है कि मैंने एक लम्बा अर्शा वेदना में जिया है |तमाम तकलीफे और ठोकरों के बीच मैंने देने लायक कुछ जुटा भी लिया है |पर आज का आशु अब वैसा नहीं रहा |वह राजनीतिक समस्याओं से कट सा गया है | उसका लेखन साहित्यिक हो कर गया है |यह वेदना इस लिए पाली थी कि अग्निधर्मा होकर समाज को रोशनी दिखा सकूँ |पर मैं वेदना के तमाम उपहारों के बीच गुमशुदा गया हूँ |
सुनो भाई !!..मेरी तरह तमाम वक्त तुम भी अकेले रहे हो |अंतर् ये है कि मेरी तरह तमाम जगह भटके नहीं हो |अपने भीतर के खालीपन को कभी भटकन का रास्ता मत दिखाना |भटकन का आदर्श बहुत निर्मम होता है |तुम्हारी ज़िंदगी का बहुत सा खाली हिस्सा मेरे हाँथ में था जिसे मैं भर सकता था |नहीं भर पाया इसके लिए माफ़ कर देना |आजादी की अपनी ख्वाहिशे होती हैं और कुछ सीमाओं को मैं भी नहीं तोड़ सकता |कुल मिलाकर तुम ये जानते ही हो कि मैं कभी अच्छा साथी नहीं रहा हूँ |दरअसर खुद के करीबी रिश्तों का आकलन करता हूँ तो समझ आता है कि मैं साथी बनने के लिए बना ही नहीं हूँ | साथी की तमाम अपरिहार्यताएं मैं नहीं निभा पाता |तुम निभा लेते हो ये तुम्हारी खूबसूरती है |
भाई !!मुझे वो 32 करोड़ लोग अब भी याद हैं जिनकी आँखे सारी रात फुटपाथ पर लेटकर पर चाँद में रोटियां देखती रहती हैं |गुजरात और पंजाब में मार दिए गई वो तमाम बेगुनाह भी जहन में हैं जिनके परिवार न्याय की देवी को अंधा मान बैठे हैं| गुजरात और पंजाब में मार दिए गई वो तमाम बेगुनाह भी जहन में हैं जिनके परिवार न्याय की देवी को अंधा मान बैठे हैं| इतिहास से आज तक जारी इन तमाम नाइंसाफियों के खिलाफ एक क्रांति होनी है .|क्रान्ति की कामना हममे से ही तो किसी को करनी थी |मैंने खुद से भी कहा था की ‘कुछ ऐसा करना है जिसे क्रांति जैसा कहा जा सके | इसके लिए मुझे आजकल नीत्से बहुत याद आता है |”दुनिया में जो कुछ भी अद्भुत या अलग है उसका निर्माण बाजार की मक्खियों से दूर जाकर हुआ है |” नीत्से की इस बात में मैं किसी रोज अपना भविष्य तलाश लूँगा | चलता हूँ |अपना ख्याल रखना |
आपका अनुज
आशु

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