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मेरे शहर !! तुम अब विशुद्ध धोखेबाज हो गए हो |

भटकन का आदर्श
भटकन का आदर्श
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मेरे शहर ,
मैं अब तुमसे विदा हो चुका हूँ | आंसुओं का भावुक सैलाब नहीं है | अफ़सोस की कोई जरूरत नहीं हैं |पेशे की मजबूरिया भी हैं और तुमसे कसावट की कमतरी भी | आँखों में आँखे डाल कर विदा हुआ हूँ |यह अतिरिक्त स्वाभिमान नहीं है बल्कि तुम्हे उस सच से रूबरू करा रहा हूँ जिसको शायद हर शहरी ने महसूस किया है |
शहर ! तुम्हारे भीतर की संरचनाएं कठिन है |संस्थाएं बीमार है | हर तरफ चालाकी से बुना गया एक जाल है |तुमसे गुजरकर आदमी ‘कम आदमी’ हो जाता है |तुम्हारी कोख में दिन -रात तकलीफ की कितनी कहानिया पलती हैं |मैं कितनी आँखों में हर रोज सपनो का मरना देखता हूँ |तुम्हारी खूबसूरती बढ़ाता तुम्हारा हिस्सा बना ये फ्लाई ओवर उन लोगों की भटकन का गवाह है ,जो कुछ करने की अफवाह में तुम्हारे पास आ गए हैं |काश मैं उन्हें बता पाता कि उनकी भटकन का आदर्श तुम नहीं हो |तुम विकास की अफवाहों पर बना एक सच्चाई भरा मिथक हो | तुममे गुजारा हर दिन खुदी से दूर लेता जायेगा | इंसान को कम इंसान करता जायेगा |काश ! तुम्हे कभी इसका एहसास होता |अच्छा ही है| ,ये अहसास नहीं है | जिस दिन ये हुआ ,उस दिन तुम आत्महत्या कर लोगे |
हालांकि तुम अब तक मरे नहीं| बचे हो , क्युकी तुममे नाजुकता शेष है | ये नाजुकता भी वो बचीखुची खूबशूरती है जो तुम्हारे बाशिंदों ने अपने भीतर किसी तरह तुम से बचा कर रखी है |पता है ! तुम पैदाइशी धोखेबाज नहीं थे | . जैसे – जैसे तुम अमीरपरस्त होते गए , तुम धोखेबाज होते गए | अब तुम विशुद्ध धोखेबाज हो गए है क्युकी तुम्हारी सौ फीसदी परिसम्पत्तिओं का एक फीसदी लोगों से दोस्ताना है | . सुनो शहर !!..कान खोल कर सुन लो |ये जो स्टैटिक्स की पेचीदिगियों पर तुमने जीडीपी की इमारत टिकाई है उसे दरकते अब देर नहीं लगेगी | . दिन रात की जा रही तुम्हारी बेवफ़ाइयों को लोग समझने लगे है | तुम अब उनके नहीं रहे जिन्होंने तुम्हे तुम्हारा आकार दिया था | दूर तक फैली वीरनियत को एक ज़िंदा शहर में बदल दिया था | वो श्रमिक अब सर्वहारा हो चूका है | वो कामगीर अब और नहीं सह पाएंगे | किसी रोज वो अराजक हो जायेंगे |तब न्याय होगा ……शायद …खैर….
शहर क्या तुम हर रोज हो रही नाइंसफिओं को देखकर रोना नहीं आता ??| क्या तुम्हारी इमारत का कोई भी कोना अब भावुक नहीं रहा ??| रोटी खाने की जुगत में तुम्हारे सामने बिता दी जाने वाली तमाम रातों बिना सोई आँखों को तुम कैसे सह लेते हो?? |मेरे शहर! मैंने एक बच्चा देखा था | दस साल का तन्मयता से बर्तन मांजता बच्चा …वह अपने काम में मशीन जैसे जुटा था |एकाएक वह मुझे घूर रहा था सच्ची शहर !!…ऐसे तमाम बच्चे है| इन बच्चों की आँखों में मुझे तुम्हारी मौत दिखाई देती है |
तुम्हारी संरचनाओं में कहीं भीतर किसी रोज मैं भी फंसा दिया जाऊंगा |लेकिन , मैं अंत तक तुमसे यू ही तीखे सवाल करता रहूँगा | मैं बारिशों में पर फैलाने वाला परिंदा हूँ | चलता हूँ |कहाँ जाऊंगा | हाय नियति !…तुमसे जाकर तुममे ही आऊंगा | कोई है ???????

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