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औसत एक धोखा देने वाला शब्द है |

भटकन का आदर्श
भटकन का आदर्श
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औसत शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग सामजिक जीवन में खूब होता है | अखबार में छपे लेख हर दिन कोई न कोई औसत दर बता जाते हैं |इंसानो की कामगारी नापने के लिए औसत सबसे सुरक्षित रूपक समझा जाता है | यह शब्द किसी की ज्यादा इज्जत और घोर बेइजती के बीचो- बीच की सीमा पर डटा हुआ मिलता है |फलां आदमी औसत है , ऐसा कहकर हम तमाम कहाव और सवालों से बच सकते हैं |जीवन के एक ऐसे स्तर पर जहां आदमी मर मर कर जीता हुआ न दिखे ,औसत जीवन कहा जा सकता है | दफ्तरों में जिन सहयोगियों के काम को लेकर हम कन्फूज है ,उन्हें आसानी से औसत कर्मचारियों की लिस्ट में डाला जा सकता है | औसत होना हमे ज्यादा सामजिक बनता है |औसत होना दुनिया भर के झमेलों से आपकी रक्षा करता है |पिछले कुछ सालों में माध्यम वर्ग के लिए बड़ा कीमती शब्द बनकर उभरा होता है |
औसत एक न दिखने वाला शब्द है |औसत कभी नहीं होता | औसत कोई नहीं होता | फिर भी हर जगह औसत मौजूद रहता है |यह शब्द शायद किसी रूमानी शून्यता से उपजा है |दफ्तर में कोई न कोई औसत होता है |क्लास में एक तबका औसत होता है |जन्म दर , मर्त्य दर , वृद्धि दर आदि आदि दरों के ठीक पहले औसत मुस्तैदी से डटा रहता है | औसत होने में कोई नैतिक संकट नहीं है पर औसत शायद एक बोझ बनती भीड़ का परिचायक है | औसत व्यवहारिक हो सकता है पर वह बेहद हल्का और ढोने में माहिर होता है | औसत बॉस की अतिरिक्त इज्जत करता है |वह काम करता हुआ सबको दिख जाना चाहता है | औसत गरीब नहीं दिखना चाहता | औसत सबको न्याय दिलाता है , नहीं शायद आंकड़ों के आगे लगकर न्याय दिलाने का ढोंग करता है |
औसत एक धोखा देने वाला शब्द है | ओशो ने कहा था की औसत जैसा कुछ होता ही नहीं | क्या औसत जैसा कुछ होता है | एक आदमी की आय १०० रूपये है दूसरे की २० रुपए तो औसत आय क्या होगी | औसत आय होगी ६० रुपए |यानी दोनों की आय ६० रुपए है |क्या ऐसा है ? यह गणित के सवाल का सवाल नहीं है बल्कि अब यह सामजिक जीवन में भी डेटा जर्नलिज्म और सोशल स्टैटिक्स की दुनिया में उपयोगी हो गया है | कुछ भी बराबर नहीं होता लेकिन राज्य को सब कुछ बराबर दिखाना पड़ता है |राज्य की इस मंशा में औसत शब्द उसका सबसे चालाक सहयोगी है |आप प्रति व्यकि आय देखिएगा फिर खुश होने की बजाय उस दिन- रात गहरी होती खाई को भी देखिएगा जो औसत की आड़ में आपसे छिपा दी जाती है |
सामाजिक जीवन में औसत सिर्फ और सिर्फ एक बौद्धिक मिथक है |यह राज्य सत्ता का दोस्त और आम जनता का दुश्मन है |अच्छा हो यह गणित तक सीमिर रहे |सामजिक जीवन में औसत तमाम गैर- बराबरियों को पाटने की बजाय उसे छूपा देता है |
आशुतोष तिवारी
भारतीय जन संचार संस्थान

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