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.होता है तो सिर्फ सच!! ..स्वयं में नाटकीय सच!! …

भटकन का आदर्श
भटकन का आदर्श
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विष्णु प्रभाकर’ की रचना ‘आवारा मसीहा’ पढ़ने के बाद मेरी ‘पहली प्रतिक्रिया’— ..
कहते हैं , कलाकार सच की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अक्सर बनावटों का सहारा लेता है पर कभी कभी सच स्वयं में इतना ‘नाटकीय’ और ‘आकर्षक’ होता है कि उसकी बुनावट में ‘मिथकीयता’ महत्वहीन हो जाती है | विष्णु प्रभाकर की रचना आवारा मसीहा शरत चन्द्र के जीवन -आलोक में रचनाधर्मिता के एक ऎसे ‘तल’ से रूबरू कराती है जहां अच्छे या बुरे का गडितीय विभाजन नही होता! ..होता है तो सिर्फ सच!! ..स्वयं में नाटकीय सच!! …|अज्ञेय ने ‘शेखर -एक जीवनी’ की प्रस्तावना में लिखा था कि “वेदना में एक शक्ति होती है जो दृस्टि देती है , जो यातना में है वो द्रस्टा हो सकता है” |शरत की जीवन-यात्रा का यह सूत्र वाक्य रहा है और ‘आवारा मसीहा’ इस दिशाहार , विकृत लेकिन महान-यात्रा का दस्तावेज |
दरअसर ‘हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर’ बंबई के स्वामी ‘श्री नाथू राम प्रेमी’ विष्णु प्रभाकर से शरत की एक छोटी जीवनी चाहते थे |एक ऐसे बदनाम लेखक के बारे में लिखना जिसके बारे में चारों और सच्चाई कम मिथक ज्यादा चर्चित हो;निसंदेह एक चुनौतीभरा काम था |शायद इसलिए प्रभाकर जी को इस रचना के लिए सामग्री संकलन में १४ साल लग गए |आवारा मसीहा १४ सालों की ‘ईमानदार मेहनत’ का ‘बेशकीमती प्रतिफलन’ है |
किताब की शुरुआत बंगाल की उस समृद्ध पृष्ठभूमि से होती है जहां ‘सुधारवादी ताकते’ और ‘पुनरुत्थान के पुरोधा’ एक दूसरे को परास्त करने की अंतहीन बहसों में व्यस्त थे | ऐसे उर्वर माहौल में ही शायद शरत के जीवन के आदर्श तय हुए होंगे जिसे हम ‘प्रतीकात्मक जल्दबाजी’ में कभी ‘आवारा’ तो कभी ‘मसीहा’ में बाँट देते हैं | अभावग्रस्त जीवन ….नशा , दोस्तबाजी और फ़क्कड़ियत…रसिक प्रेमीयता….अनवरत मिलन और बिछडन …बिछडन की टीस…टीस(दर्द ) का आदर्श …यही सब मिलकर बंगाल की गलियों के आवारा समझे जाने वाले युवक को ‘महान रचनाकार’ शरतचन्द्र बना देते हैं |शरत के जीवन के ये ‘अवयव’ देवदास से लेकर चरित्रहीन तक खुद को प्रकट करते मिल जायेंगे |
किताब की भाषा में सरलता और बहाव है |शरत के जीवन की ‘रोचक नाटकीयता’ से रूबरू होने के लिए यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए |आप जानकर हैरान होंगे कि शरत अपनी नाना की नजरों में इस हद तक चरित्रहीन थे कि उनके घर में अंदर जाने से पहले शरत को खासना पड़ता था ताकि वयस्का भने अंदर चली जाएं|प्रतिभाशालियो कि यही नियति रही है |
हर कलाकार के जीवन के पीछे एक कठोर नियति कार्य करती है | यह नियति यथार्थ के धरातल पर जितनी कठोर होगी ,कलाकार उतना ही महान होगा |इसीलिए शरत कि रचनाये भित्तिहीन नही है | यह भोगा हुआ यथार्थ है जिस पर शरत की रचनाधर्मिता टिकी है
आशुतोष तिवारी
भारतीय जन संचार संस्थान

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