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राष्ट्रवादी होने की मायने

भटकन का आदर्श
भटकन का आदर्श
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यह राष्ट्रवाद पर बहस करने का सबसे मुकम्मल समय है | बहस इसलिए भी जरूरी है क्योकि राष्ट्रवाद के तमाम 20वीं शताब्दी के पायरेटेड संस्करण फिर से फन फैला रहे हैं और जिसकी वजह से सारा समाज इस शब्द पर गहरी भ्रामकता से जूझ रहा है | आजकल की घटनाओं को देखकर बन रही है राष्ट्रवाद की निकटतम समझ यही हो सकती है कि यह कोई नकारा -प्रतीकात्मक अवधारणा है जिसकी अंतिम हैसियत 207 फ़ीट का झंडा फहराने तक सीमित है |क्या सचमुच राष्ट्रवाद कोई दानवी विचार है या राष्ट्रवाद कि सही समझदारी एक सीमा के भीतर बसे लोगों के बीच बंधुत्व का मानवीय आदर्श भी प्रस्तुत कर सकती है |??
बेहतर समझाव इतिहास कि मांग करता है | राष्ट्रवाद दुनिया में कोई बहुत पुरानी या पवित्र अवधारणा नही है बल्कि इसकी सारी समझ पुनर्जागरण , ओद्योगिक क्रांति और किशोर पूंजीवाद के बीच अंतर्संबंधों से पनपी है |पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद एकता लाने का प्रयास बनकर उभरा है जो कि अपनी खुदी में सीमा और और उसके भीतर के बाशिंदों के बीच साझा एकता के साम्य बिंदु तलाशते हुए राष्ट्र के वजूद कि रक्षा करता है |मूलतः राष्ट्रवाद नागरिकों को यह एहसास कराते रहने की अनवरत प्रक्रिया है कि निश्चित सीमा के भीतर रहने वाले सभी लोग उस राज्य का हिस्सा है जो राज्य ‘उनका’ है और ‘उनके लिए’ है | यूरोप में भाषाओं की विभिन्नता ने राष्ट्रों को जन्म दिया है इसलिए वहां राष्ट्रवाद के लिए जरूरी साम्य बिंदु भाषा है |हिन्दुस्तान में भाषा /धर्म/संस्कृति में कमाल की विविधता है अतः भारतीय राष्ट्रवाद का आधार क्या हो ?;इससे सवाल से सारी बहस शुरू होती है |
दरअसर इमानदारी से विविधताओं से भरे भारत के बाशिंदों के बीच एक ही समता है और वह है ‘उनका इतिहास’ | अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई ने एक सीमा के भीतर रहने वालों को भारतीय राष्ट्र के रूप में संगठित किया है |इस संघर्ष का एका ही भारतीय राष्ट्रवाद का आधार है और इसीलिए इससे पनपे मूल्य ही राष्ट्रवादी होने की जरुरी शर्तें होनी चाहिए |खैर …
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का कीमती ऑउटकम् श्याम प्रसाद मुखर्जी ,अम्बेडकर और नेहरू जैसे तमाम वैविध्य वैचारिक श्रोतों से मिलकर बनी संविधान सभा का बनाया हुआ भारतीय संविधान है जिसकी प्रस्तावना के मूल्य ही भारतीय राज्य में राष्ट्रवादी होने की पहली और आखिरी शर्त है |हम भारत के लोगों के बीच यदि कोई जना या जन समूह समानता , स्वतंत्रता और न्याय के विरुद्ध मानवीय गरिमा का हनन करता है तो वह 207 फ़ीट का झंडा उठाकर और गाल पर तिरंगा चिपकाकर भी राष्ट्रवादी नही है |
शुरुआत में ही लिखा है कि राष्ट्रवाद कोई पवित्र अवधारणा नही है क्योकि यह आलोचनाओं और खामिओं से परे नही है | भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे वाज़िब और मारक आलोचना राष्ट्रगान के रचयिता रविन्द्र नाथ टैगोर ने की है |वैसे तो रविन्द्र नाथ टैगोर ने ‘राष्ट्रवाद’ के नाम से एक किताब भी लिखी है लेकिन आशीष नंदी की किताब ‘देशभक्ति बनाम राष्ट्रवाद’ टैगोर के चिंतनम की बारीक विवेचना करती है | टैगोर की आलोचना का सार यह है कि राष्ट्र के साथ जब राज्य जुड़ जाता है तो राष्ट्र -राज्य को संचालित करने वाले अभिजन और उसकी वैधता का बड़ा प्रभावशाली मिश्रण तैयार होता है | राष्ट्र कि अवधारणा के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि सम्पूर्ण अर्थों में कभी राष्ट्र नही बनता | राष्ट्रवाद एकता स्थापित करने कि जबरन कोशिश करता है और इसके विपरीत स्वाभाविक विविधताओं की ओर से राष्ट्र को हमेशा चुनौती मिलती रहती है भले ही कोई कितना भी दावा करे की वह प्राचीन काल से राष्ट्र ‘थे’ और ‘हैं’ |इस तरह राष्ट्र यथार्थ होते हुए भी बौद्धिक मिथक बनकर रह जाता है |प्रायः राज्य की भीतरी विविधताओं के साधने के लिए किसी बाहरी या अंदरूनी दुश्मन की संरचना की जाती है |अंततः टकराव की नकारात्मक मानसिकता के आधार पर राष्ट्र अपना वजूद टिकाये रखता है |
हालनांकि टैगोर का राष्ट्रवाद विरोधी मानवीय दर्शन उस कालखंड का है जब दुनिया की तमाम फासीवादी शक्तिया राष्ट्रवाद के साथ तमाम किस्म की संकीर्ण छेड़छाड़ें कर रही थी |फिर भी समय -समय पर राष्ट्रवाद की परख और उस पर सवाल उठाये जाने दो कारणों से बहुत जरूरी है |एक तो राष्ट्रवाद की संविधानगत समझ को हर वक्त छिपे/खुले तौर पर राष्ट्रवाद की फासिस्ट व्याख्याओं से चुनौती मिलती रहती है दुसरा इस बात की पड़ताल की राष्ट्रवाद अपने कदम भगत सिंह की अंतरराष्ट्रीयता और वसुधैव कुटुंबकम के मानवीय आदर्श की और बड़ा भी रहा है या नही | अगर ऐसा नही हुआ तो सचमुछ राष्ट्रवाद टकराव पर टिका बौद्धिक मिथक बनकर रह जायेगा |

आशुतोष तिवारी
भारतीय जन संचार संस्थान
Mail- ashutoshtiwari1507@gmail,com
My Blog- http://mychintandarshan.blogspot.in/

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