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मां !..यह शहर लगभग बीमार हो चुके लोगों की रचना है |

भटकन का आदर्श
भटकन का आदर्श
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सुनो मां!!.
……….लोग अक्सर थियेटर जाकर थॉटफुल हो जाते हैं पर मेरे लिए यह किसी यातना शिविर जैसा होता है | कला की यह विधा अतीत के उस जाल से बाँध देती है जिससे मुक्त हो पाना बिना लिखे मुश्किल हो जाता है | इसीलिए पहली बार जवाब क़ी आशा के बगैर आपको आखिरी खत लिख रहा हूँ |हर हफ्ते आप फोन पर पूछती हो कि यहां सब कैसा चल रहा है और मैं हर बार आदतन मुस्कुराता हुआ कहता हूँ कि ‘सब कुछ ठीक है मां’ | असलियत ये है कि दिन के हर हिस्से में एक अजीब सी बेचैनी रहती है | इन बेचैनियों से छुपता -छुपाता मैं मंडी हाउस निकल आता हूँ |मेरी शामें मंडी हाउस के थियेटरों में सिगरेट पीने वाली लड़कियों के साथ अधिकतर मर चुके लेखकों के लिखे हुए नाटक देखते हुए बीतती है | सिगरेट पीने वाली ये लडकियां भी बिलकुल मेरे जैसी निर्दोष है माँ |ज़िंदगी के तमाम नासूर जख्मों को ये सिगरेट के छल्लों के बीच उड़ाना जानती हैं |शायद इसीलिए दिन पर दिन मुझे हांथों में मेहंदी लगाने वाली लड़किओं से ज्यादा सिगरेट के छल्ले उड़ाती लड़कियां पसंद आने लगी हैं |मैं शहर मे आकर सौ फीसदी आवारा हो गया हूँ | अब मैं इससे चाह कर भी बच नही सकता क्योकि आवारापन वर्षों पुरानी शैम्पेन जैसा होता है जिसकी आदत जितनी पड़ती जाती है ,खुमारी उतनी ही बढ़ती जाती है |
‘मेरे कमरे में मेरा होना’ मुझे उन डरावने पिरामिडों जैसा लगता है जिसके भीतर कुछ लोगों ने अपने किसी करीबी की लाश को सदियों पहले इस विश्वास के साथ संभाल कर रख दिया था कि एक रोज वह ज़िंदा हो जाएंगी |यहां ऐसे कई कमरे हैं और इन कई कमरों के भीतर ऐसी तमाम ज़िंदगियाँ है जो दिन -रात इन खाली कमरों में खुद के खालीपन से जूझती रहती हैं |सामने की दीवार पर एकलौती खिड़की है जो बाहर की तरफ खुलती है | खिड़की के बाहर दूर तलक जीवन का सन्नाटा पसरा रहता है |मैं अक्सर इस खिड़की पास घंटों खड़ा रहता हूँ |जब शहर का शोर मेरे सहन की सीमा से बाहर हो जाता है तो मैं खिड़की बंद कर भीतर आ जाता हूँ |फिर कुछ देर बाद भीतर का अन्धेरा जब जहन तक भर जाता है तो उठता हूँ और मजबूरन खिड़की खोलकर बेमतलब बाहर देखता रहता हूँ |शहर के हर घर में ऐसी तमाम खिड़कियाँ है | यह खिड़कियाँ ही घरों में रहने वाले मेरे जैसे तमाम अकेले लोगों की दुनिया है |वह भीतर से ऊबकर बाहर आते है ;बाहर से थक कर भीतर चले जाते हैं और किसी रोज इस आने- जाने से मुक्त किसी कोने में मरे हुए मिलते हैं |
मां ! यह शहर लगभग लगभग बीमार हो चुके लोगों की रचना है | यहां अपने गाँव की तरह कोई किसी से यूं ही बात नही करता |लोग मशीनो के बीच काम करते करते मशीन हो गए हैं |मेरी खिड़की से मुझे अक्सर एक सिलाई करता हुआ बच्चा दिखाई देता हैं | यह बच्चा पुरे दिन मशीन के साथ मशीन की तेजी से ही काम करता है | मां ,अगर आप पुरे दृश्य को लगातार देखें तो सिलाई मशीन और इस बच्चे के बीच का अंतर भूल जाएगी |यहाँ मोबाइल टावरों जितनी ऊंची -ऊंची इमारते हैं जिनके अंग्रेजी में विचित्र से नाम होते है और जिन्हे ये लोग फ़्लैट कहते हैं | इन भीमकाय फ्लैटों के नीचे मुझे खड़े होने में भी डर लगता है |इर्द -गिर्द की सारी आँखे मुझे घूरती हुई जान पड़ती है जैसे मैने अभी -अभी किसी नायाब सामान की चोरी की है |पता नही क्यों पर सचमुच मैं बिना कुछ चुराए खुद को चोर जैसा महसूस करने लगता हूँ | इस शहर की सबसे बुरी बात ये है कि इसकी हर सड़क किसी न किसी चौराहे और तिराहे पर जाकर खत्म हो जाती है |हर बार मैं कई सड़कों पर एक साथ भटका हूँ और घूम फिरकर किसी चौराहे पर निकल आया हूँ | शहर का खुलापन भी बहुत बंद होता है माँ ; इतना बंद कि अखबारों में आये दिन आता है कि फलां आदमी ने पंखे से लटककर अपनी जान दे दी |
मां ! जीवन का सबसे कठिन काम शायद समय को गुजारना होता है | लोगों की भीङ से भरा ये शहर भी बातचीत के लिए कम पड़ जाता है |अक्सर मैं खुद कि बनाई भीड़ के बीच ही अकेला हो जाता हूँ | अपने मोबाइल के सारे नंबर खंगालने लगता हूँ पर किसी से बात नही करता | किसी के भराव में अपना खालीपन उड़ेलकर किसी की सम्पूर्णता को संक्रमित नही करना चाहता | हारकर आत्महत्या के तरीके खोजने लगता हूँ | एकाएक मेरी नजर टेबल के ठीक सामने लगे शहादत हसन मंटो के पुराने चित्र पर जाती है | विलियम शेक्स्पियर के नाटकों जैसी एक रहस्य्मयी आवाज सुनाई देती है | “अकेलापन कलाकार होने कि त्रासदी है और आवारापन रचनाकार होने की नियति” | मैं इन बातों से बचने के लिए जोर से चीखता हूँ | घणी रोज की तरह पांच बजा देती है | मैं उठता हूँ और गंदी सी जींस और मेट्रो कार्ड के साथ मंडी हाउस निकल जाता हूँ |
आपका बेटा
(यह खत एक काल्पनिक रचना है |)
आशुतोष तिवारी
भारतीय जनसंचार संस्थान
ashutoshtiwari1507@gmail.com
My website – http://mychintandarshan.blogspot.in/

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